भारतीय मृदा ( Soil Of india )
मृदा
चट्टानों के अपक्षय से प्राप्त वे असंगठित पदार्थ जिसमें कार्बनिक, अकार्बनिक, जल तथा वायु का मिश्रण पाया जाता है, उसे मृदा कहते हैं।
मृदा एक बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन है। मृदा की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सोलम से हुई है, जिसका अर्थ है – फर्श
मृदा अनेक प्रकार के खनिजों, पौधों और जीव जन्तुओं के अवशेषों से निर्मित होती है।
पृथ्वी के पृष्ठ की ऊपरी परत पर असंगठित दानेदार कणों के आवरण वाली परत मृदा कहलाती है।
भारत में पाई जाने वाली चट्टानों की संरचना एवं भारत की जलवायु में पर्याप्त विविधता पाई जाती है।
अतः भारत की विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की मिट्टियों का विकास हुआ है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने भारत की मिट्टियों ( soil of india ) को 8 वर्गों में विभाजित किया हैं-
जलोढ़ मिट्टी
इस मिट्टी का विस्तार भारत के लगभग 43.36% भाग पर है।
इस मिट्टी के दो प्रमुख क्षेत्र हैं (1) उत्तर का विशाल मैदान (2) तटवर्ती मैदान
इसके अलावा नदियों की घाटियों एवं डेल्टाई भाग में भी यह मिट्टी पाई जाती है।
इस मिट्टी का निर्माण नदियों द्वारा लाए गए तलछट के निक्षेपण से हुआ है।इस प्रकार यह एक अक्षेत्रीय मिट्टी है।
इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस एवं ह्यूमस की कमी होती है।
परंतु इस मिट्टी में पोटाश एवं चूने का अंश पर्याप्त होता हैं।
इस मिट्टी को सामान्यतः दो वर्गों में विभाजित किया जाता हैं-
(1) बांगर
(2) खादर
Soil Of India
(1) बांगर
पुरानी जलोढ़ मृदा है।
यह मिट्टी सतलज एवं गंगा के मैदान के ऊपरी भाग तथा नदियों के मध्यवर्ती भाग में पाई जाती है, जहाँ सामान्यतः बाढ़ का पानी नहीं पहुँच पाता है।
इसमें चीका एवं बालू की मात्रा लगभग बराबर होती है, साथ ही इसका रंग गहरा होता है।
बांगर का मैदान रबी फसलों की कृषि के लिए अधिक उपयुक्त है।
इसमें गेहूँ, कपास, तिलहन, दलहन, मक्का जैसी फसलों की कृषि बहुतायत से होती है।
पूर्वी तटीय मैदान के ऊपरी भाग में भी बांगर मिट्टी पाई जाती है, जिसमें तम्बाकू व मक्का की कृषि बहुतायत से होती है।
हाल के वर्षों में इस मृदा के क्षेत्र में कपास एवं गन्ना की कृषि को भी प्रधानता दी जा रही है।
(2) खादर
यह नवीन जलोढ़ मृदा है।
बाढ़ के पानी के लगभग प्रतिवर्ष पहुँचने के कारण इस मृदा का नवीनीकरण होता रहता है।
इस मृदा में सिल्ट एवं क्ले (Clay) तुलनात्मक रूप से अधिक पाया जाता है एवं इसका रंग हल्का होता है।
यह मृदा निम्न गंगा का मैदान, ब्रह्मपुत्र घाटी एवं डेल्टाई क्षेत्रों में पाई जाती हैं। यह मृदा खरीफ फसलों, मुख्यतः चावल एवं जूट की कृषि के लिए विशेष रूप से उपयुक्त होती है।
शुष्क क्षेत्रों में इस मिट्टी में लवणीय व क्षारीय गुण भी पाए जाते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘रेह’, ‘कल्लर’ या ‘थुर’ नामों से जाना जाता हैं।
Soil Of India
2. काली मिट्टी
काली मिट्टी भारत की तीसरी प्रमुख मिट्टी है, जिसे रेगुर, काली कपास मिट्टी तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर उष्णकटिबंधीय चरनोजम इत्यादि नामों से जाना जाता है।
यह मृदा लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है।
यह 100 से 250 उत्तरी अक्षांश एवं 730 से 800 देशांतर के बीच पाई जाती है।
इस ‘रेगुर’ एवं ‘कपास मृदा’ के नाम से भी जाना जाता है।
यह मृदा मुख्यतः महाराष्ट्र दक्षिण एवं पूर्वी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तरी कर्नाटक, उत्तरी तेलंगाना, उत्तर-पश्चिम तमिलनाडु, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान आदि क्षेत्र में पाई जाती है।
इस मिट्टी का निर्माण लावा पदार्थों के विखंडन से हुआ है।इस मृदा के काले रंग का होने का कारण इसमें कुछ विशिष्ट लवणों (Salts) जैसे - लोहा एवं एल्युमिनियम के टिटनीफेरस मैग्नेटाइट यौगिक आदि की उपस्थिति है।
यह मिट्टी काफी उपजाऊ है।
उच्च क्षेत्रों की काली मिट्टी की उर्वरता निम्न क्षेत्रों की काली मिट्टी की तुलना में कम है।
यह मिट्टी गीली होने पर फूल जाती है व चिपचिपी हो जाती है।
सूख जाने के बाद सिकुड़ने के कारण इसमें लंबी एवं गहरी दरारें पड़ जाती हैं।
इस प्रकार इस मिट्टी की जुताई स्वतः होती रहती है।
इस मिट्टी में लोहा, एल्युमिनियम, मैग्नीशियम एवं चूने की अधिकता होती है तथा नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस एवं जैविक सामग्री की कमी होती है।
यह मिट्टी कपास की कृषि के लिए उत्तम होती है।
इसके अलावा यह मिट्टी मूंगफली, तम्बाकू, गन्ना, दलहन एवं तिलहन की कृषि के लिए अनुकूल है।
इस मिट्टी की जलधारण क्षमता अधिक है।
यही कारण है कि यह मिट्टी शुष्क कृषि के लिए अनुकूल है।
यह एक क्षेत्रीय मिट्टी है एवं मिट्टी का आदर्श पार्श्व चित्र देखने को मिलता।
Soil Of India
3. लाल एवं पीली मिट्टी
यह भारत की दूसरी प्रमुख मिट्टी है, जो कुल मिट्टियों में 18.5% भाग में फैली है।
इस मिट्टी का विस्तार लगभग 5.18 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में पाया जाता है।
इसका निर्माण ग्रेनाइट एवं नीस तथा शिष्ट जैसी रूपांतरित चट्टानों के विखंडन से हुआ है।
लोहे के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण ही इसका रंग लाल होता है।
इस मिट्टी का रंग कुछ क्षेत्रों में चोकलेटी व पीला भी देखने को मिलता है।
यह मिट्टी प्रवेश्य होती है एवं इसमें कंकड़ भी पाए जाते हैं।
यह मिट्टी बिहार के संथाल परगना एवं छोटा नागपुर पठार, पश्चिम बंगाल के पठारी क्षेत्र तमिलनाडु, कर्नाटक, दक्षिण पूर्वी महाराष्ट्र, पश्चिमी एवं दक्षिणी आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश के अधिकांश भाग, ओडिशा एवं उत्तर प्रदेश के झाँसी, ललितपुर, मिर्जापुर, बांदा में पाई जाती है तथा राजस्थान के बाँसवाड़ा, भीलवाड़ा और उदयपुर जिलों में पाई जाती है।
इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं ह्यूमस की कमी होती है।
इस मिट्टी में मुख्यतः मोटे अनाज, दलहन एवं तिलहन की कृषि की जाती है।
तीव्र अपरदन इस मिट्टी की मुख्य समस्या है।
Soil Of India
4. लैटेराइट मिट्टी
यह स्थानबद्ध मिट्टी है, जो लगभग 1.26 लाख वर्ग कि.मी क्षेत्र में पाई जाती है।
यह वास्तव में लाल मिट्टी का ही एक विशिष्ट प्रकार है, जिसका निर्माण मानसूनी जलवायु की विशिष्टता का परिणाम है।
मानसूनी जलवायु में आर्द्र एवं शुष्क मौसम वैकल्पिक (Alternate) रूप से पाया जाता है, जिसके फलस्वरूप इस मिट्टी का निर्माण होता है।
यह मिट्टी सामान्यतः 200 सें.मी. से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाती है।
अधिक वर्षा के कारण लैटेराइट चट्टानों पर निक्षालन (Leaching) की क्रिया होती है।
फलस्वरूप सिलिका एवं चूने के अंश रिसकर नीचे चले जाते हैं एवं मृदा के रूप में लोहा एवं एल्युमिनियम के यौगिक बचे रह जाते हैं।
शुष्क मौसम में यह मिट्टी सूखकर ईंट की भांति कठोर ही जाती है एवं गीली होने पर दही की तरह लिपलिपी हो जाती है।
यह मिट्टी मुख्य रूप से पूर्वी एवं पश्चिमी घाट, राजमहल की पहाड़ी, केरल, कर्नाटक के कुछ क्षेत्र, ओडिशा के पठारी क्षेत्र, छोटा नागपुर के पाट प्रदेश, असम के कुछ क्षेत्र एवं मेघालय के पठार पर पाई जाती है।
इसका सर्वाधिक विस्तार केरल में है।
इस मिट्टी में चूना, नाइट्रोजन, पोटाश एवं ह्यूमस की कमी होती है।
चूने की कमी के कारण यह मृदा अम्लीय होती है। इस मिट्टी की उर्वरा शक्ति लाल मिट्टी से भी कम होती है।
इस मिट्टी में मोटे अनाज, दलहन एवं तिलहन की कृषि की जाती है।
अम्लीय होने के कारण इस मिट्टी में चाय की भी कृषि की जाती है।
5. पर्वतीय मिट्टी
इसे वनीय मिट्टी (Forest Soil) भी कहा जाता है।
पर्वतीय ढालों पर विकसित होने के कारण इस मिट्टी की परत पतली होती है।
इस मिट्टी में जीवांश की अधिकता होती है।ये जीवांश अधिकतर अनपघटित (Undecomposed) होते हैं, फलस्वरूप ह्यूमिक अम्ल का निर्माण होता है एवं मिट्टी अम्लीय हो जाती है।
इस मिट्टी में पोटाश, फास्फोरस एवं चूने की कमी होती है।
इस मिट्टी की ऊर्वरा शक्ति कम होती है।
भारत में फलों की कृषि व सब्जी उत्पादन किया जाता है।
6. मरुस्थलीय मिट्टी
इस मिट्टी का भौगोलिक विस्तार 1.42 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाया जाता है।
यह मिट्टी मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, दक्षिणी हरियाणा एवं उत्तरी गुजरात में पाई जाती है।
हाल के वर्षों में मरुस्थल का फैलाव पूर्व की ओर हुआ है एवं दक्षिण- पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के कुछ क्षेत्र भी इससे प्रभावित हुए हैं।
यह वास्तव में बलुई मिट्टी है, जिसमें लोहा एवं फास्फोरस पर्याप्त होता है, परंतु इसमें नाइट्रोजन एवं ह्यूमस की कमी होती है।
इस मिट्टी में मुख्यतः मोटे अनाजों की कृषि की जाती है, परंतु जहाँ सिंचाई की पर्याप्त सुविधा है वहाँ कपास एवं गेहूँ की भी कृषि की जाती है।
Soil Of India
7. नमकीन एवं क्षारीय मिट्टी
इस मिट्टी को रेह, ऊसर या कल्लर नाम से भी जाना जाता है।
यह मिट्टी 1 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाई जाती है।यह मिट्टी छिटपुट रूप से पाई जाती है।
इस मिट्टी का विकास वैसे क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ जल निकासी की समुचित व्यवस्था का अभाव है।ऐसी स्थिति में केशिका कर्षण (capillary action) की क्रिया द्वारा सोडियम, कैल्शियम एवं मैग्नीशियम के लवण मृदा की ऊपरी सतह पर निक्षेपित हो जाते हैं।
फलस्वरूप इस मिट्टी में लवण की मात्रा काफी बढ़ जाती है।
समुद्र तटीय क्षेत्रों में ज्वार के समय नमकीन जल के भूमि पर फैल जाने से भी इदस मृदा का निर्माण होता है।
नमकीन मिट्टियों में सोडियम क्लोराइड एवं सोडियम सल्फेट की अधिकता होती है तथा क्षारीय मृदा में सोडियम बाई कार्बोनेट की अधिकता होती है।
ऐसी मृदाओं में नाइट्रोजन की कमी होती है। यह एक अंतः क्षेत्रीय मिट्टी है, जिसका विस्तार सभी जलवायु प्रदेशों में पाया जाता है।
यह मिट्टी मुख्यतः दक्षिणी पंजाब, दक्षिणी हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, गंगा के बाएँ किनारे के क्षेत्र, केरल तट, सुंदरवन क्षेत्र सहित वैदे क्षेत्रों में भी पाई जाती है जहाँ अत्यधिक सिंचाई के कारण जल स्तर ऊपर उठ गया है।
यह एक अनुपजाऊ मृदा है।
इस मृदा के सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-हरी खाद एवं जिप्सम का प्रयोग जल निकासी की उत्तम व्यवस्था खेतों को जल से भर कर, लवण के घुल जाने के पश्चात् जल को बहाकर। नहरों से रिसने वाले जल पर काबू पाना एवं समुचित सिंचाई व्यवस्था अपनाना।
पीट या जैविक मिट्टीदलदली क्षेत्रों में काफी अधिक मात्रा में जैविक पदार्थों के जमा हो जाने से इस मिट्टी का निर्माण होता है।
इस प्रकार की मिट्टी काली, भारी एवं काफी अम्लीय होती है।
यह मिट्टी मुख्यतः उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा, सुंदरवन डेल्टा एवं अन्य निम्न डेल्टाई क्षेत्रों में पाई जाती है।
जल की मात्रा कम होते ही ऐसी मिट्टी में चावल की कृषि की जाती है।
तराई प्रदेश में गन्ने की कृषि भी की जाती है।
Soil Of India
भारत में मृदा का वैज्ञानिक वर्गीकरण (Scientific Classification of Soils in India )
मृदा की संरचना व गुण के आधार पर (USDA) संयुक्त राज्य अमेरिका का कृषि विभाग) वर्गीकरण के अनुसार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) नई दिल्ली द्वारा भारत में मृदा के 8 मुख्य प्रकार व 27 मुख्य प्रकार निम्न है:-
इंसेप्टीसॉइल्स:- इसमें मृदा परिच्छेदिकाएँ पूर्णत: वैज्ञानिक वर्गीकरण विकसित नहीं हो पाती है। इसमें लोहांश-एल्युमिनियम की कमी हरती है।
एण्टीसेप्टीसॉइल्स:- इसमें मृदा परिच्छेदिका का अभाव रहता है।
वर्टीसॉइल्स : इसमें मृतिका (clay) की मात्रा उच्च रहती है। यह सामान्य वर्गीकरण की 'मध्यम' काली मृदा है।
एरीडो सॉइल्स :- यह शुष्क जलवायु की रेतीली मृदा है।
एल्फीसॉइल्स:- यह चरनोजम के अधिक अपक्षय से विकसित मृदा है। यह नमीयुक्त चूना प्रधान मृदा है।
अल्टीसॉइल्स:- यह लाल-पीली या लेटेराइट मृदा से अपक्षय से विकसित मृदा है। यह अम्लीय प्रकृति की मृदा है।
मॉलीसॉइल्स:- चरनोजम के तुल्य मृदा काली मृदा में उच्च जीवाश्म जमा होने पर विकसित मृदा है।
हिस्टोसॉइल्स:- दलदली मृदा मृतिका का अभाव रहता है। इसे बांग मृदा भी कहते हैं।
ऑक्सीसॉइल्स :- उष्ण कटिबंधीय लैटेराइट मृदा तुल्य
स्पोडो सॉइल्स :- टेंगा वन क्षेत्र की मृदा है। यह अम्लीय मृदा है। इसमें राख (Ash) का उच्च जमाव रहता है।
मिट्टी की समस्याएँ(soil problems)
वर्तमान समय में हमारे देश की मिट्टी निम्न समस्याओं के दौर से गुजर रही है :
(1) मृदा अपरदन
(2) जल जमाव
(3) अम्लीयता, लवणीयता एवं क्षारीयता
(4) बंजर भूमि की समस्या
(5) मरुस्थलीकरण
(6) मानव द्वारा भूमि का अत्यधिक शोषण
मृदा अपरदन की समस्या (soil erosion problem)
मृदा के ऊपरी सतह के अनावरण (हटने) को मृदा अपरदन कहते हैं।
वर्तमान समय में भारत में मृदा अपरदन की समस्या काफी गंभीर है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) के अनुसार भारत की 60% भूमि मृदा क्षरण की समस्या से ग्रसित है।
मृदा परत का क्षरण के लिए प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों ही कारण उत्तरदायी हैं।
हाल ही के वर्षों में मानव द्वारा कृषि भूमि के अवैज्ञानिक प्रयोग के कारण मृदा अपरदन की समस्या गंभीर होती जा रही है।
भारत में सबसे ज्यादा मृदा अपरदन की समस्या राजस्थान में है, जिसके बाद मृदा का सर्वाधिक अपरदन क्रमश: मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, गुजरात, आंध्रप्रदेश में होता है।
Soil Of India
मृदा अपरदन के प्रकार ( types of soil erosion )
(1) परत अपरदन (Sheet Erosion) : जब जल या वायु, मिट्टी की ऊपरी परत को बहाकर या उड़ाकर ले जाते हैं तो इसे परत अपरदन कहा जाता है, जैसे- पश्चिमी भारत में।
(2) अवनलिका अपरदन : जब तीव्र गति से बहता हुआ जल, मिट्टी को काटकर गहरी नालियों, खड्डों का निर्माण कर देता है, तो इसे अवनलिका अपरदन कहा जाता है, जैसे - चम्बल क्षेत्र में।
मृदा अपरदन के कारक
भारत में जल एवं वायु दोनों ही कारकों द्वारा मृदा अपरदन का कार्य होता है।
जल अपरदन से प्रभावित क्षेत्रशिवालिक एवं हिमालय पर्वत, मुख्यतः मध्य एवं पूर्वी भाग में।
यमुना एवं चम्बल नदी की घाटी उत्तर-पूर्वी भारत उत्तर-प्रदेश का ब्रज भूमि क्षेत्र पश्चिमी घाट पर्वतीय क्षेत्र तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल के कुछ क्षेत्र।
वायु अपरदन से प्रभावित क्षेत्रपश्चिमी राजस्थान दक्षिण पंजाब दक्षिणी हरियाणा पश्चिमी उत्तर प्रदेश वायु एवं जल दोनों के अपरदन से प्रभावित क्षेत्र भारत के मैदानी भागों में वर्षा ऋतु में जल द्वारा एवं शुष्क मौसम में वायु द्वारा अपरदन का कार्य होता है।
Soil Of India
जल अपरदन से प्रभावित क्षेत्र ( areas affected by water erosion)
शिवालिक एवं हिमालय पर्वत, मुख्यतः मध्य एवं पूर्वी भाग में।
यमुना एवं चम्बल नदी की घाटी
उत्तर-पूर्वी भारत
उत्तर-प्रदेश का ब्रज भूमि क्षेत्र पश्चिमी घाट पर्वतीय क्षेत्र
तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल के कुछ क्षेत्र।
वायु अपरदन से प्रभावित क्षेत्र (areas affected by air erosion)
पश्चिमी राजस्थान
दक्षिण पंजाब दक्षिणी हरियाणा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश
वायु एवं जल दोनों के अपरदन से प्रभावित क्षेत्र (areas affected by air and air erosion )
भारत के मैदानी भागों में वर्षा ऋतु में जल द्वारा एवं शुष्क मौसम में वायु द्वारा अपरदन का कार्य होता है।
मृदा अपरदन के कारण
(1) तीव्र एवं मूसलाधार वर्षा
(2) तीव्र वायु
(3) भूमि का तीव्र ढाल (
4) मिट्टी का हल्कापन
(5) वनों की कटाई (
6) अतिचारण
(7) अवैज्ञानिक कृषि जैसे ढाल के समानांतर खेत की जुताई, फसल चक्र न अपनाना, अत्यधिक सिंचाई एवं उर्वरक का प्रयोग आदि।
(8) झूम कृषि
(9) विकास कार्य, जैसे-खनिजों की खुदाई, सड़क, बाँध आदि का निर्माण।
मृदा अपरदन की समस्या से प्रभावित प्रमुख क्षेत्र
( Major areas affected by the problem of soil erosion )
(1) मध्य भारत में चंबल, यमुना एवं उसकी सहायक नदियों की घाटीः
इस क्षेत्र में 36 लाख हैक्टेयर भूमि मृदा अपरदन की समस्या से ग्रसित है।
इस क्षेत्र की मिट्टी काफी हल्की है एवं वनस्पति के आवरण के अभाव में मृदा का अपरदन काफी तीव्र गति से होता है
।यहाँ 15 से 20 फीट तक की गहराई के खड्डे व बीहड़ (Ravines) बन गए हैं।
(2) उत्तर-पूर्वी भारत :इसे रेंगती मिट्टी (creeping soil) का क्षेत्र कहा जाता है।
इस भाग की 60% भूमि गंभीर रूप से मृदा अपरदन की समस्या से ग्रसित है।
इसका कारण वनों की कटाई, झूम एवं सीढीनुमा कृषि तथा भारी वर्षा है।
(3) हिमालय एवं शिवालिक क्षेत्र :वनों की कटाई एवं कृषि कार्य के विस्तार के कारण असम एवं कुमायूँ हिमालय में यह समस्या है।
हिमालय प्रदेश एवं जम्मू कश्मीर में इस समस्या का कारण अतिचारण है।
(4) छोटा नागपुर प्रदेश :इस क्षेत्र में मृदा अपरदन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण वनों की कटाई तथा खनन कार्य है।
(5) मरुस्थलीय क्षेत्र :इसके अंतर्गत पश्चिमी राजस्थान के जिले आते हैं, जहाँ वायु द्वारा अपरदन की क्रिया अधिक प्रभावी है।
इसके अलावा पश्चिमी घाट पर्वत क्षेत्र, तमिलनाडु, ओडिशा एवं बंगाल में भी मृदा अपरदन की गंभीर समस्या है।
Soil Of India
मृदा अपरदन रोकने के उपाय ( Measures to prevent soil erosion )
(1) वृक्षारोपण, विशेषकर पहाड़ी ढालों, बंजर भूमि एवं नदियों के किनारे।
(2) अतिचारण को नियंत्रित करना।
(3) फसल चक्र की कृषि पद्धति को अपनाना।
(4) जल के तीव्र वेग को रोकने के लिए मेड़बन्दी करना।
(5) समोच्च रेखीय (Contour) एवं ढाल के लंबवत् जुताई करना।
(6) ऊबड़-खाबड़ भूमि को समतल करना।
(7) स्थानांतरित कृषि पर रोक लगाना।
(8) पट्टीदार कृषि अपनाना।
(9) कृषित भूमि को परती एवं खुला हुआ कम से कम छोड़ना। भूमि को वनस्पतियों पुआल आदि के आवरण से ढक कर रखा जाए (Milching) ताकि मृदा में नमी की मात्रा बनी रहे।
(10) समुचित उर्वरक एवं सिंचाई द्वारा मृदा की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखना।