Complete Notes || Fundamental Rights || मौलिक अधिकार

 

 Complete Notes || Fundamental Rights || मौलिक अधिकार


 

वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक एवं अनिवार्य हैं, जो संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं, उन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है।

मूल अधिकारों का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रिटेन में हुआ।

ब्रिटिश सम्राट जॉन द्वारा सन् 1215 . में हस्ताक्षरित अधिकार पत्र मूल अधिकार सम्बन्धी प्रथम लिखित दस्तावेज हैं।

मूल अधिकार वर्तमान भारतीय संविधान के भाग-3 और अनुच्छेद-12 से 35 में हैं।

ये अमेरिका के संविधान से प्रभावित हैं।


मूल अधिकारों की माँग सर्वप्रथम भारत में बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज्य विधेयक 1895 के माध्यम से की।

मूल अधिकारों के निर्माण का प्रथम प्रयास 1928 में मोतीलाल नेहरू ने 'नेहरू रिपोर्ट' के माध्यम से किया गया।

वर्ष 1931 के करांची अधिवेशन में कहा गया "स्वाधीन भारत के किसी भी संविधान को मौलिक अधिकारों की गारण्टी होनी चाहिए।"

भारत में सर्वप्रथम मौलिक अधिकारों की स्पष्ट रूप से मांग वर्ष 1935 में जवाहर लाल ने की।

जवाहरलाल नेहरू ने मूल अधिकारों को 'संविधान की अंतरआत्मा की संज्ञा दी है। '

संविधान सभा द्वारा मूल अधिकार तथा अल्पसंख्यक समिति का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष सरदार पटेल थे।

मूल संविधान में नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे परन्तु 44वें संविधान संशोधन द्वारा 1978 में सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से हटाकर कानूनी अधिकार बना दिया गया।

मौलिक अधिकार  एक नजर में

1.   समानता का अधिकार (अनुच्छेद-14 से 18):

अनु. 14- विधि के समक्ष समता

यह विधि के समक्ष समानता अथवा विधि का समान संरक्षण प्रदान करता है। विधि के समक्ष समानता का प्रावधान ब्रिटिश संविधान से लिया गया है। इस व्यवस्था के अनुसार सभी व्यक्ति बिना किसी विभेद देश के सामान्य कानूनों से शासित होंगे अर्थात् कोई भी व्यक्ति विधि से ऊपर नहीं है।

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के वाद में  उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के बाद अनुच्छेद-14 में निहित विधि के शासन को संविधान का आधारभूत ढाँचा घोषित किया गया है।

अनु. 15- धर्ममूलवंशजातिलिंग या जन्मस्थल के आधार पर विभेद का प्रतिषेध

यह मूल अधिकार केवल भारतीय नागरिकों के लिए है। इसके अंतर्गत समता के आधार को विशेष क्षेत्रों में लागू करने की व्यवस्था है। यह धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद को रोकता है।

अनुच्छेद-15(4) को प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा संविधान में अंत: स्थापित किया गया जिसके अनुसार शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

यह सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के लिए, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए है।

93वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 द्वारा संविधान के अनुच्छेद-15 में खण्ड(5) जोड़ा गया जिसमें कहा गया है कि राज्य नागरिकों के सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जातियों, जनजातियों की उन्नति के लिए शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए छूट संबंधी विशेष उपबंध बना सकता है।

103वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 के द्वारा अनुच्छेद-15 में (6) जोड़ा गया जिसके अनुसार राज्य अनुच्छेद-15(4) तथा अनुच्छेद-15(5) में वर्णित वर्गों के अतिरिक्त आर्थिक रूप से दुर्बल किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए विशेष उपबंध कर सकेगा।

अनु. 16- लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता-

यह अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है। यह अनुच्छेद सरकारी सेवाओं में सभी की नियुक्ति हेतु समानता के अवसर उपलब्ध कराता है।

77वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1995 द्वारा अनुच्छेद (4)() जोड़ा गया, इसमें राज्य को यह शक्ति दी गई है कि वह अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों की उन्नति में आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है।

103वें संशोधन अधिनियम, 2019 से अनुच्छेद-16(6) जोड़ा गया जिसके अन्तर्गत राज्य को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अनुच्छेद-16(4) में वर्णित वर्ग के अतिरिक्त आर्थिक रूप से दुर्बल समुदाय के लिए भी नियुक्ति  पदों में आरक्षण की व्यवस्था कर सकेगा।

अनु. 17- अस्पृश्यता का अंत-

यह भारतीय समाज में व्याप्त कुरीति अस्पृश्यता का अन्त करता है तथा छुआ-छूत का समर्थन करने वालों को दण्डित करने की व्यवस्था करता है। संसद ने अनुच्छेद-17 के अधीन शक्ति का प्रयोग करते हुए 'अस्पृश्यता अपराध अधिनियम,1955' अधिनियमित किया गया, जिसे सन् 1976 में पुनसंशोधन कर 'नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1976' नया नाम दिया गया। अनुच्छेद-17 स्वत: क्रियान्वित कानून है अर्थात् इसके उल्लंघन पर न्यायालय सीधे भारतीय दण्ड संहिता के आधार पर दण्ड दे सकता है।

अनु. 18- उपाधियों का निषेध-

यह उपाधियों का उन्मूलन करता है। अनुच्छेद-18 के खण्ड(1) में कहा गया है कि राज्य नागरिक गैर-नागरिकों को सैनिक तथा शैक्षणिक सेवाओं से जुड़ी उपाधियों के अतिरिक्त अन्य उपाधियाँ देने पर प्रतिबंध लगाता है।

2.  स्वतंत्रता का अधिकार(अनुच्छेद-19 से 22):

अनु. 19- वाक्-स्वातन्त्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण

स्वतंत्रता लोकतंत्र का आधारभूत लक्षण है एवं अनुच्छेद-19 केवल भारतीय नागरिकों के लिए है। अनुच्छेद-19(1) के अन्तर्गत प्रारम्भ में भारतीय संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को कुल 7 स्वतंत्रताएँ प्रदान की गई थी परन्तु 44वें संविधान संशोधन, 1978 के माध्यम से अनुच्छेद-19(1)(में उपबंधित सम्पत्ति के अर्जनधारण और व्ययन की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया गया।

वर्तमान में भारतीय संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को अनुच्छेद-19(1) के अन्तर्गत स्वतंत्रताएँ प्रदान की गई हैं-

•    अनु. 19(1)() : वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

•    अनु. 19(1)() : शांतिपूर्ण  निरायुद्ध सम्मेलन की स्वतंत्रता

•    अनु. 19(1)() : संघसंगठन या सहकारी समिति (97 संशोधन 2011) बनाने की स्वतंत्रता

•    अनु. 19(1)() : अबाध संचरण या आगमन की स्वतंत्रता

•    अनु. 19(1)() : निवास की स्वतंत्रता

•    अनु. 19(1)() : रोजगार या जीविका की स्वतंत्रता

अनु. 20- अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण –

अनुच्छेद-20 के अन्तर्गत व्यक्तियों को राज्य के विरुद्ध अपराध के संबंध में निम्नलिखित संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हैं-

1.  कार्योत्तर विधियों से संरक्षण (Ex-Post-Facto Law) अनुच्छेद-20(1) –

अनुच्छेद 20(1) में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को प्रवृत्त विधि के अतिक्रमण या उल्लंघन के आधार पर ही अपराधी ठहराया जायेगा।

2.  दोहरे दण्ड से संरक्षण(Protection from Double Jeopardy) –

अनुच्छेद-20 के खण्ड (2) में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक 'दण्डित' या 'अभियोजित' नहीं किया जायेगा।

3.   आत्म-अभिशंसन से संरक्षण(Protection from Self Incrimination) &

अनुच्छेद-20(3) में कहा गया है कि किसी व्यक्ति को, जो कि अपराधी हैस्वयं अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा।

अनु. 21- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण

 

अनुच्छेद-21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से कानून अथवा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जा सकता।

'.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य, .आई.आर. 1950' मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा, कि अनुच्छेद-21 विधान मण्डल विधि द्वारा किसी व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित कर सकता है।

'मेनका गाँधी बनाम भारत संघ .आई.आर. 1978' मामले में उच्चतम न्यायालय ने गोपालन मामले में दिये अपने निर्णय को उलट दिया तथा निर्णय दिया कि अनुच्छेद-21 के तहत प्राप्त संरक्षण केवल कार्यपालिका की मनमानी कार्यवाही के विरुद्ध ही नहीं बल्कि विधानमण्डलीय कार्यवाही के विरुद्ध भी उपलब्ध है अर्थात् विधायिका विधि द्वारा किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती है।

अनुच्छेद-21 की महत्ता के कारण डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इसे 'संविधान का मेरुदण्ड तथा मेग्नाकार्टा' कहा है।

44 वें संविधान संशोधन अधिनियम-1978 में संसद ने अनुच्छेद-359 में संशोधन करके स्पष्ट किया कि अनुच्छेद-20 तथा 21 में प्रदत्त स्वतंत्रता के अधिकार को आपातकाल में भी निलम्बित नहीं किया जा सकता।

अनुच्छेद-21() शिक्षा का मूल अधिकार

86वें संविधान संशोधन अधिनियम-2002 द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद-21() जोड़ा गया जिसमें प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार सम्मिलित है। अनुच्छेद-21() में कहा गया है कि राज्य का यह कर्त्तव्य होगा कि वह 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बालकों को नि:शुल्क अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराये। शिक्षा के मूल अधिकार के क्रियान्वयन के लिए संसद ने 'शिक्षा का अधिकार विधेयक-2009' पारित किया जो 1 अप्रैल, 2010 से लागू हो गया। राजस्थान ने इसे 1 अप्रैल, 2011 से लागू किया गया।

अनु. 22- गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण

अनुच्छेद-22 गिरफ्तारी एवं निरोध के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है गिरफ्तारी दो प्रकार की होती है-

(i)   सामान्य दण्ड विधि के अधीन

(ii)   निवारक निरोध विधि के अधीन

अनुच्छेद-22 सामान्य दण्ड विधि के अधीन गिरफ्तारी के संबंध में निम्नलिखित अधिकार प्रदान करता है-

()  24 घंटे से अधिक बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

()  गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए जाने का अधिकार।

()   अपनी रुचि के विधि-व्यवसायी से परामर्श एवं बचाव का अधिकार।

किन्तु-

(i)   यह अधिकार शत्रु विदेशी को प्राप्त नहीं है।

(ii)   निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तार व्यक्तियों को भी उपर्युक्त अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

3.   शोषण के विरुद्ध अधिकार(अनुच्छेद-23 से 24):

अनु. 23- मानव के दुर्व्यापार और बलात् श्रम का प्रतिषेध

अनुच्छेद-23 में मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात श्रम निषिद्ध ठहराया गया है। अनुच्छेद-23 राज्य निजी व्यक्तियों दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है।

 'मानव-दुर्व्यापार' में मनुष्यों (स्त्री-पुरुषका वस्तुओं की भाँति क्रय-विक्रयस्त्रियों  बच्चों का अनैतिक व्यापार (वेश्यावृत्तिकरना तथा दास प्रथा शामिल है। मानव दुर्व्यापार से संबंधित कानून बनाने की शक्ति संसद को प्राप्त है।

अनुच्छेद-23 व्यक्तियों को बेगार अन्य इसी प्रकार के बलपूर्वक लिये जाने वाले श्रम अर्थात् बलात् श्रम से संरक्षण प्रदान करता है।

अनु. 24- कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध

अनुच्छेद-24 के अंतर्गत 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को कारखानों, खनन अथवा अन्य किसी जोखिम पूर्ण कार्य में नियोजन का निषेध किया गया है।

4.  धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार(अनुच्छेद-25 से 28):

अनु. 25- अंत:करण की और धर्म के अबाध रूप से माननेआचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता

अनुच्छेद-25(1) के अनुसार  सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा। इसके प्रभाव निम्न हैं-

(i)   अंत:करण की स्वतंत्रता  किसी भी व्यक्ति को भगवान या उसके रूपों के साथ अपने ढंग से अपने संबंध को बनाने की आंतरिक स्वतंत्रता।

(ii)   मानने का अधिकार  अपने धार्मिक विश्वास और आस्था की सार्वजनिक और बिना भय के घोषणा करने का अधिकार।

(iii)  आचरण का अधिकार  धार्मिक पूजापरंपरासमारोह करने और अपनी आस्था और विचारों के प्रदर्शन की स्वतंत्रता।

(iv)  प्रचार का अधिकार  अपनी धार्मिक आस्थाओं का अन्य को प्रचार और प्रसार करना या अपने धर्म के सिद्धांतों को प्रकट करना।

अनुच्छेद-25 में दो व्याख्याएँ भी की गई हैं-

पहलाकृपाण धारण करना और लेकर चलना। सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा।

दूसराइस संदर्भ में हिंदुओं में सिक्खजैन और बौद्ध सम्मिलित हैं।

अनु. 26- धार्मिक कार्यों के प्रबंधन की स्वतंत्रता

अनुच्छेद-26 के अनुसार, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त होंगे-

धार्मिक एवं मूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का अधिकार।

अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार।

अनु. 27- किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए कर भुगतान के बारे में स्वतंत्रता

किसी भी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय करने के लिए करों के संदाय हेतु बाध्य नहीं किया जाएगा। करों का प्रयोग सभी धर्मों के रख-रखाव एवं उन्नति के लिए किया जा सकता है।

अनु. 28- कुछ शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता-

अनुच्छेद-28 के अंतर्गत राज्य-निधि से पूर्णत: पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा दी जाए। हालांकि यह व्यवस्था उन संस्थाओं में लागू नहीं होती, जिनका प्रशासन तो राज्य कर रहा हो लेकिन उनकी स्थापना किसी विन्यास या न्यास के अधीन हुई हो।

5.   संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार(अनुच्छेद-29 से 30):

अनु. 29- अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हैं, परन्तु उनके संरक्षण के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। भारतीय संविधान में भाषायी  धार्मिक आधारों पर अल्पसंख्यकों का निर्धारण होता है।

अनु. 30- शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार

धर्म या भाषा पर आधारित अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि के शिक्षा संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा। इन शिक्षण संस्थानों को सम्पत्ति का अधिकार होगा।

अनु. 31- सम्पत्ति का अनिवार्य अधिग्रहण (निरस्त)

अनु.31- संपदा के अधिग्रहण के लिए कानून की सुरक्षा

अनु.31कुछ अधिनियमों और विनियमनों की वैधता

अनु.31नीति निदेशक सिद्धांतों पर प्रभाव डालने वाले कानूनों की सुरक्षा

अनु.31राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से संबंधित कानूनों की सुरक्षा (निरस्त)

6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार(अनुच्छेद-32):

अनु.32   संवैधानिक उपचारों के अधिकार को डॉअम्बेडकर ने 'भारतीय संविधान की आत्माऔर 'संविधान की प्राचीर' कहा है।

अनुच्छेद-32 के तहत संवैधानिक उपचार केवल उसी व्यक्ति को उपलब्ध होगा जिसके मूल अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो। इसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय-5 प्रकार की रिट जारी करने की शक्ति रखता है। सम्पूर्ण भारतीय क्षेत्र से कोई भी व्यक्ति अपने मूल अधिकारों की रक्षा के लिये सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।

रिट जारी करने की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद-32 के अन्तर्गत जबकि उच्च न्यायालय को अनुच्छेद-226 के अन्तर्गत प्राप्त है। प्रमुख रिट या प्रलेख निम्न हैं-

(i)   बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas carpus) –

इसका शाब्दिक अर्थ है 'को प्रस्तुत किया जाए' यह रिट ऐसे व्यक्ति या प्राधिकारी के विरुद्ध जारी की जाती है, जिसने किसी व्यक्ति को अवैध रूप से निरुद्ध किया है। इसके अनुसार न्यायालय निरुद्ध या कारावासित व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित कराता है।

(ii)  परमादेश (Mandamus) – इसका शाब्दिक अर्थ है- 'हम आदेश देते हैं।' इस रिट का प्रयोग ऐसे अधिकारी को आदेश देने के लिए किया जाता है जो सार्वजनिक कर्त्तव्यों को करने से इंकार या उपेक्षा करता है।

यह रिट राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के विरुद्ध जारी नहीं की जा सकती है।

(iii)  प्रतिषेध (Prohibition) – इसका अर्थ है- 'मना करना या रोकना।' इसके अनुसार ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने से निषिद्ध किया जाता हैजो उसमें निहित नहीं है। यह रिट सिर्फ न्यायिक या अर्द्धन्यायिक कृत्यों के विरुद्ध जारी की जाती है। जिस तरह परमादेश सीधे सक्रिय रहता, प्रतिषेध सीधे सक्रिय नहीं रहता है।

(iv)   उत्प्रेषण (Certiorari) – इसका शाब्दिक अर्थ है- 'सूचना देना या प्रमाणित होना।' उत्प्रेषण प्रलेख प्रतिषेध प्रलेख के समान ही है, क्योंकि दोनों अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध जारी की जाती हैं किन्तु दोनों प्रलेखों में मुख्य अन्तर यह है कि प्रतिषेध रिट कार्यवाही के दौरानकार्यवाही को रोकने के लिए जारी की जाती है जबकि उत्प्रेषण रिट कार्यवाही की समाप्ति पर निर्णय को रद्द करने हेतु जारी की जाती है।

(v)   अधिकार पृच्छा (Quowarranto) – इसका शाब्दिक अर्थ 'किसी प्राधिकृत या वारंट के द्वारा है।' यदि किसी व्यक्ति के द्वारा गैर वैधानिक तरीके से किसी भी पद को धारण किया गया हो तो न्यायालय इस रिट के माध्यम से उसके पद का आधार पूछती है। अन्य चार रिटों से हटकर इसे किसी भी इच्छुक व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता है कि पीड़ित द्वारा। इसे मंत्रित्व और निजी कार्यालय के लिए जारी नहीं किया जा सकता।

अनु.32 राज्य कानूनों की संवैधानिक वैधता पर विचार नहीं (निरस्त)

अनु. 33   इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों का सशस्त्र बलों आदि को लागू होने में, उपांतरण करने की संसद की शक्ति

अनु. 34   जबकि किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवृत्त है तब इस भाग द्वारा प्राप्त अधिकारों पर निर्बंधन

अनु. 35   इस भाग के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए विधान।

मूल अधिकारों में संशोधन संबंधी प्रमुख वाद

1.  शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ-1951

निर्णय: संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है।

2.  सज्जन सिंह  अन्य बनाम राजस्थान राज्य-1965

निर्णय: संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है।

3.  गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य-1967

निर्णय: संसद द्वारा मूल अधिकारों को तो कम किया जा सकता है ही हटाया जा सकता है अर्थात् संसद को मौलिक अधिकारों में किसी भी तरह के परिवर्तन का अधिकार नहीं है। इस वाद में मौलिक अधिकारों का सर्वोच्च वरीयता प्रदान की गई।

4.  केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य-1973

निर्णय: संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है लेकिन संविधान के 'मूल ढाँचे' में संशोधन नहीं कर सकती।

नोट: 'मूल ढाँचेया 'आधार भूत ढाँचेकी संकल्पना केशवानंद भारती मामले में आई।

नोट:

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-12 राज्य शब्द को परिभाषित करता है।

अनुच्छेद-13 मूल अधिकारों का सुरक्षा कवच  सजग प्रहरी है। इसके तहत न्यायालय किसी भी विधि को शून्य घोषित कर सकता हैजो मूल अधिकारों से असंगत है।

अनुच्छेद-15, 16, 19, 29 तथा 30, केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त हैं।

अनुच्छेद-352 के तहत जब राष्ट्रीय आपात लागू हो तो अनुच्छेद-358, 359 राष्ट्रपति को यह अधिकार देते हैं कि वह मौलिक अधिकारों का निलम्बन कर दे।

अनुच्छेद-358 के अनुसार अनुच्छेद-19 में दिये गये अधिकार स्वतही निलंबित हो जाते हैंइस कारण राष्ट्रपति को पृथक से आदेश देने की आवश्यकता नहीं है।

अनुच्छेद-359 के अनुसार आपातकाल के समय राष्ट्रपतिअनुच्छेद-20, 21 के अतिरिक्त अन्य सभी मूल अधिकारों को निलम्बित कर सकता है।

 

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